जलवायु परिवर्तन अब कोई भविष्य का खतरा नहीं, बल्कि आज की सच्चाई बन चुका है। वैज्ञानिक लगभग तीन दशक पहले से चेतावनी देते आ रहे थे कि अगर प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन को नहीं रोका गया, तो धरती का तापमान बढ़ेगा और समुद्र का स्तर ऊपर उठेगा। आज वही डरावनी भविष्यवाणी सच होती दिख रही है। धरती की बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और समुद्र का पानी लगातार गर्म होकर फैल रहा है। इस प्रक्रिया ने पूरी दुनिया के लिए एक नया संकट खड़ा कर दिया है।
नासा और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्टें इस स्थिति को लेकर बेहद चिंताजनक हैं। 1880 से अब तक समुद्र का स्तर लगभग 21 से 24 सेंटीमीटर बढ़ चुका है, और 1990 के बाद यह रफ्तार दोगुनी हो गई है। 2024 की रिपोर्ट के अनुसार समुद्र हर साल लगभग 0.59 सेंटीमीटर की दर से ऊपर उठ रहा है। यह सुनने में भले छोटा लगे, लेकिन जब इसे तटीय शहरों की आबादी, घरों, उद्योगों और इकोसिस्टम के संदर्भ में देखा जाए, तो यह आंकड़ा बेहद खतरनाक साबित होता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले 50 से 70 वर्षों में समुद्र के किनारे बसे कई शहरों का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। अगर यही रफ्तार जारी रही तो 2100 तक तटीय क्षेत्रों में रहना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। भारत जैसे देश के लिए यह संकट और भी बड़ा है, क्योंकि मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और विशाखापट्टनम जैसे बड़े शहर सीधे समुद्र के किनारे बसे हैं। इन शहरों में करोड़ों लोग रहते हैं, जिनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी समुद्र पर निर्भर है — मछली पालन, बंदरगाह, समुद्री व्यापार और पर्यटन सब प्रभावित होंगे।
मुंबई के तटीय इलाकों जैसे वरसोवा, माहिम और कोलाबा सबसे पहले इस खतरे की चपेट में आ सकते हैं। बढ़ते समुद्री स्तर के कारण यहाँ बार-बार बाढ़ और तूफान आने की संभावना बढ़ जाएगी। कोलकाता के सुंदरबन और आसपास के क्षेत्र धीरे-धीरे जलमग्न हो सकते हैं। चेन्नई में समुद्री लहरें किनारों तक पहुँचने लगी हैं, जिससे इंफ्रास्ट्रक्चर को भारी नुकसान हो सकता है। विशाखापट्टनम का बंदरगाह और तटीय औद्योगिक क्षेत्र भी इस बदलाव से अछूते नहीं रहेंगे।
यह संकट सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के छोटे द्वीप राष्ट्र जैसे मालदीव, तुवालु, किरिबाती और फिजी पहले से ही समुद्र के बढ़ते स्तर के असर झेल रहे हैं। वहाँ के लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ सकता है। यह सिर्फ एक पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि एक मानवीय संकट (Humanitarian Crisis) बन सकता है। जब लाखों लोग अपने घरों से विस्थापित होंगे, तो पलायन, बेरोजगारी और सामाजिक अस्थिरता जैसी नई समस्याएँ जन्म लेंगी।
समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र (Marine Ecosystem) पर भी इसका गहरा असर पड़ रहा है। बढ़ते तापमान और समुद्री जल में खारापन बढ़ने से कोरल रीफ, मैंग्रोव, और कई मछलियों की प्रजातियाँ खतरे में हैं। इन जीवों का मरना केवल प्राकृतिक नुकसान नहीं बल्कि उन समुदायों के लिए भी मुश्किल है जो मछली पालन और समुद्री अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं। तटीय मैंग्रोव जंगलों का खत्म होना, प्राकृतिक सुरक्षा कवच को कमजोर कर देता है, जिससे तटीय बाढ़ और तूफान का खतरा और बढ़ जाता है।
वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि अगर अब भी कार्बन उत्सर्जन पर रोक नहीं लगी, तो यह स्थिति और भयावह हो जाएगी। सबसे जरूरी कदम है ग्रीनहाउस गैसों को कम करना। इसके लिए हमें जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) पर निर्भरता घटानी होगी और सौर ऊर्जा (solar energy), पवन ऊर्जा (wind energy) और हाइड्रोजन ईंधन जैसी स्वच्छ तकनीकें (clean technologies) अपनानी होंगी। साथ ही, तटीय इलाकों में मजबूत सुरक्षा दीवारें, जल निकासी व्यवस्था और मैंग्रोव रोपण (mangrove plantation) जैसे प्राकृतिक उपायों को भी बढ़ावा देना चाहिए।
शहरों की योजना बनाते समय अब जलवायु जोखिम (climate risk) को ध्यान में रखना अनिवार्य है। अगर भविष्य की बस्तियाँ ऊँचे क्षेत्रों में बसाई जाएँ और जल निकासी सिस्टम आधुनिक बनाया जाए, तो नुकसान कम किया जा सकता है। स्कूलों, मीडिया और लोकल प्रशासन को मिलकर लोगों को जागरूक बनाना होगा कि यह सिर्फ पर्यावरण नहीं, बल्कि हमारी ज़िंदगी और आने वाली पीढ़ियों का सवाल है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एकजुटता की जरूरत है। Paris Climate Agreement, COP summits और UN Environment Goals जैसे प्रयास तभी सफल होंगे जब हर देश ईमानदारी से अपने कार्बन लक्ष्य पूरे करे। अमीर और विकसित देशों को गरीब देशों की तकनीकी और आर्थिक मदद करनी होगी ताकि वे हरित ऊर्जा की ओर बढ़ सकें।
भारत में “मिशन लाइफ” और “नेशनल एडाप्टेशन प्लान” जैसे कार्यक्रम सही दिशा में कदम हैं, लेकिन इन्हें और मजबूती से लागू करना होगा। लोकल स्तर पर पंचायतों और नगर निगमों को भी क्लाइमेट एक्शन का हिस्सा बनाना चाहिए।
आख़िर में सच्चाई यही है कि समुद्र का बढ़ता स्तर हमें यह याद दिलाता है कि जलवायु परिवर्तन अब भविष्य की नहीं, वर्तमान की समस्या है। चाहे वह मुंबई की गलियाँ हों, न्यूयॉर्क का तटीय इलाका या मालदीव के द्वीप — हर जगह इसका असर महसूस किया जा रहा है। यह पृथ्वी का नहीं, मानव सभ्यता का संकट है।
अब यह हमारे हाथ में है कि हम इसे केवल खबर बनाकर छोड़ देते हैं या इसे रोकने की ठोस शुरुआत करते हैं। समय कम है, लेकिन उम्मीद अभी बाकी है। अगर आज पूरी दुनिया मिलकर कदम उठाती है, तो आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और स्थिर ग्रह दिया जा सकता है। यही असली जिम्मेदारी है — और यही जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी परीक्षा भी।
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