Noida के जेवर क्षेत्र में सामने आया दहेज हत्या का यह मामला न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा, बल्कि समाज में बढ़ते दहेज अपराध और न्यायिक प्रणाली पर भी कई सवाल खड़े कर गया। यह घटना वर्ष 2022 की है जब 26 वर्षीय दुर्गेश की संदिग्ध परिस्थितियों में ससुराल में मौत हो गई थी। दो साल पहले उसकी शादी Pradeep नामक युवक से हुई थी। शुरुआती जांच में यह मामला दहेज उत्पीड़न और हत्या से जुड़ा बताया गया था। दुर्गेश के परिवार ने अपने बयान में कहा था कि ससुराल पक्ष उसे लगातार दहेज के लिए प्रताड़ित करता था। एफआईआर में भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए (दहेज उत्पीड़न), 304B (दहेज मृत्यु), 323 (मारपीट), 506 (धमकी) और दहेज निषेध अधिनियम की धाराएँ लगाई गईं।
Police जांच के बाद केस अदालत में पहुंचा। अभियोजन पक्ष ने यह साबित करने की कोशिश की कि मृतका को उसके पति और परिजनों ने दहेज की मांग को लेकर परेशान किया, जिसके कारण उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण “फांसी से दम घुटना” बताया गया। कानून के अनुसार, यदि किसी महिला की शादी के सात साल के भीतर अस्वाभाविक मौत होती है, तो यह “दहेज मृत्यु” के अंतर्गत माना जा सकता है। ऐसे मामलों में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी लागू होती है, जिसमें यह मान लिया जाता है कि मौत दहेज की वजह से हुई, यदि यह साबित हो कि महिला को मौत से पहले प्रताड़ित किया गया था।
लेकिन इस केस में कहानी एकदम पलट गई। जब सुनवाई शुरू हुई, तो मृतका के माता-पिता, जो मुख्य गवाह थे, उन्होंने अदालत में अपने पहले दिए गए बयान से मुकर गए। पिता महावीर और माँ ने कहा कि उन्होंने दबाव में शिकायत दर्ज करवाई थी और उन्हें पूरे मामले का सही अर्थ समझ नहीं आया था। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी बेटी को दहेज के लिए प्रताड़ित नहीं किया गया था। यह बयान अभियोजन पक्ष के लिए सबसे बड़ा झटका साबित हुआ।
अदालत ने स्पष्ट कहा कि केवल शुरुआती आरोप या संदेह किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। जब तक यह प्रमाणित न हो जाए कि मृतका को मौत से पहले दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था, तब तक धारा 113बी के तहत अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपने आरोपों को साबित करने में असफल रहा है, क्योंकि गवाहों ने अपने बयान बदल दिए और कोई ठोस साक्ष्य भी प्रस्तुत नहीं किए जा सके।
न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी जोड़ा कि कानून में स्पष्ट प्रावधान हैं कि किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए केवल भावनाओं या सामाजिक दबाव पर नहीं, बल्कि साक्ष्यों पर भरोसा किया जाना चाहिए। अदालत ने इस आधार पर आरोपी प्रदीप को बरी कर दिया और उसे जेल से रिहा करने का आदेश दिया।
इस फैसले के बाद यह मामला एक बार फिर समाज में चर्चा का विषय बन गया। लोगों ने सवाल उठाया कि आखिर दहेज हत्या जैसे गंभीर अपराधों में गवाह अपने बयान क्यों बदल देते हैं? क्या यह डर, दबाव या समझौते का नतीजा होता है? यह स्थिति न्याय प्रणाली के लिए भी चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि ऐसे मामलों में गवाही ही सबसे अहम सबूत मानी जाती है। जब गवाह अपने बयान से पलटते हैं, तो न्याय अधूरा रह जाता है।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में दहेज अपराधों के मामलों में अक्सर साक्ष्य कमजोर होते हैं और गवाह बाद में दबाव या सामाजिक कारणों से अपना बयान बदल देते हैं। अदालतों में ऐसे कई मामले हैं जहां परिवारजन पहले भावनात्मक रूप से आरोप लगाते हैं, लेकिन समय बीतने के बाद समझौता या डर के कारण पीछे हट जाते हैं। इससे न केवल आरोपी बच निकलते हैं, बल्कि वास्तविक न्याय भी बाधित होता है।
इस घटना ने एक और मुद्दे को उजागर किया है — समाज में “दहेज हत्या” जैसे मामलों की जांच और गवाही की संवेदनशीलता। यदि परिवार या गवाह अपने बयान बदलते हैं, तो कानून का प्रभाव कमजोर पड़ जाता है। विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि ऐसे मामलों में गवाहों को सुरक्षा, कानूनी परामर्श और मानसिक सहयोग की आवश्यकता होती है ताकि वे सच बोलने का साहस रख सकें।
साथ ही, समाज को भी अपनी सोच बदलने की जरूरत है। दहेज को सम्मान या प्रतिष्ठा का प्रतीक मानने के बजाय इसे एक अपराध के रूप में देखना होगा। शादी एक संस्कार है, सौदा नहीं। यदि हम इस सोच को बदलने में सफल होते हैं, तो न केवल कानून सशक्त होगा, बल्कि बेटियों की ज़िंदगी भी सुरक्षित होगी।
नोएडा का यह केस यह साबित करता है कि न्याय की राह केवल कानून से नहीं, बल्कि सच्चाई और साहस से भी तय होती है। अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि “न्याय संदेह पर नहीं, सबूत पर टिका होता है।” लेकिन जब गवाह ही सच छिपा लें, तो न्याय अधूरा रह जाता है। यह फैसला एक चेतावनी है — न सिर्फ गवाहों के लिए, बल्कि समाज के लिए भी — कि अगर हम सच बोलने की हिम्मत नहीं रखेंगे, तो दहेज जैसे अपराध यूं ही जारी रहेंगे।
दहेज हत्या पर बने सख्त कानून तभी प्रभावी होंगे जब समाज और न्याय प्रणाली एक साथ खड़े होंगे। जरूरत है कि हर नागरिक यह समझे कि न्याय केवल अदालत की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि हमारी भी है। क्योंकि हर पलटी हुई गवाही सिर्फ एक केस नहीं, बल्कि एक अधूरी न्याय कहानी होती है।

